आखिरी यकीन

"हां, थोड़ी दिक्कत तो है।" राघव ने आरव से कहां। थोड़ी दिक्कत तो थी। तभी तो फैक्ट्री में काम करने वाले दो लड़के, सड़क किनारे बैठकर, बीड़ी पीते हुए इसके बारे में इतना गहन विचार कर रहे थे।

"देखा, जब तक हम हमारे दिमाग से यह भगवान या मसीहा वाली सोच का कीड़ा नहीं निकाल लेते तब तक मेहनत का फल गलत हाथों में पड़ता रहेगा।" आरव ने कहा।

"मैं तेरी बात को नकार नहीं रहा। मैं मानता हूं कि हमारे देश में सबसे कम खाना उसे ही नसीब होता है जो खेत जोतता है पर क्या यह इंसान होने का मूल तत्व नहीं?" राघव आरव की तरफ मुड़ा, अपना चश्मा सीधा किया और गंभीरता से कहने लगा "हम किसी जिंदा या मुर्दा व्यक्ति, किसी खोज, किसी चीज या बस किसी याद को भगवान बना देते है क्योंकि वे हमें कहीं न कहीं छू जाती है। वह हमें इंसान होना महसूस कराती है।"

"पर तू कैसे कह सकता है कि यह तथ्य एकदम सही है? क्या पता तू इस विचार को भगवान समझ बैठा हो?"

ग़रीबी और गंभीरी का करीबी रिश्ता है। चाहे वह किसी भी मतलब में हो। आरव और राघव बचपन से एक दूसरे को नहीं जानते थे। न ही चाल चलन में एक से थे। सच कहूं तो दोनों कुछ महीने पहले ही फैक्ट्री में मिले थे और यही शायद उनके बीच एक समान है। यह और गरीबी।

जब दोनों की बीड़ी खत्म हुई तो उसे फेंक कर पांव से सड़क पर घिस दिए, मानो यहां अपने दस्तखत कर रहे हो। दोनों फैक्ट्री की ओर जाने ही लगे थी कि राघव ने आरव को रोका और कहां "सुन न, आज मां का जन्मदिन है। बोलेगी नहीं, पर उसे केक बहुत पसंद है। लेते हुए चले क्या?"

"अबे! फैक्ट्री में तेरा केक जल के राख हो जाएगा। और तेरे पास पैसे कहां से आए रे?"

"वह हफ्ते भर से ठेके नहीं आया न।"

"अच्छा साले, और मुझे बोलता था तबीयत खराब है। चल कोई नहीं, रात को लेते हुए जाना।" और दोनों काम को चल दिए। रात हो गई। थोड़ी देर भी हो गई मगर इतनी नहीं कि सारी दुकानें बंद हो जाए। दुकान में घुसते हुए आरव कहने लगा, 

"मैंने कहा था चंदन बेकर्स अभी भी खुली होगी। चंदन काका का लड़का अपना भाई जैसा है यार, और वही दुकान पर बैठता है।"

दुकान में लगी कांच की डिसप्ले काउंटर के पीछे से एक करीबन उन्नीस बरस का लड़का, अपनी कुर्सी से उठा।

"और कार्तिक कैसा है?"

"बस बढ़िया, आरव भईया। आप बताओ?"

आरव ने काउंटर पर एक हाथ टिकाकर सहारा लिया और अलग अलग केक्स पर अपनी नजर घुमाते हुए बोला, "अरे एकदम मस्त। आज ठेके पे आयेगा न?"

"बिल्कुल भैया, मम्मी पापा वैसे भी ऋषिकेश गए हुए है।"

राघव ने एक सफेद रंग के केक पर इशारा करते हुए कहा "यह वाला पैक कर दो।"

"जी अभी करता हूं।"

आरव हल्का–सा राघव की तरफ झुकक उसके कान में फुसफुसाने लगा "सबसे सस्ता है इसलिए ना?" और फिर हंसने लग गया। राघव ने उसे कोहनी मार कर दूर किया। दोनों थैली लेकर जब बाहर निकले, उनके साथ साथ असमान में कुछ बादल भी आ गए।

"बारिश होने को लगती है। आज पक्का, ठेके का टेंट गिरेगा, और सारे नशेड़ी भीग जाएंगे।"

"मुझे जल्दी घर पहुंचना चाहिए।" कहते हुए राघव ने अलविदा ली और घर को चल दिया।

घर दुकान से थोड़ा दूर था और बारिश उतरने को उतावली हो रही थी इसलिए बरस पड़ी। राघव ने अपना मोबाइल व बटवा केक के डिब्बे के साथ थैली में डाला और थैली को लपेट लिया। फिर इसे अपने सीने से चिपकाकर भागने लगा। जब घर पहुंचा तो पूरा भीग चुका था। उसके चश्मे पर से बारिश की बूंदें ऐसे गिर रही थी जैसे आंखों में से आँसू। अंदर घुसकर चप्पल उतारी और दुबक दुबक के चलने लगा ताकि मां को पास जाकर चौका सके। बिना मरम्मत के इस अर्द्ध–खंडित घर में अगर इस वक्त कोई आवाज़ आई तो वह पानी टपकने की थी, या तो सिली हुए छतों से या राघव के कपड़ो से। जब अन्दर पहुंचा तो उसकी मां दीवार की तरफ मुंह किए जमीन पर लेती सो रही थी।

"मां..." वह धीरे से बोला पर बदन में कोई हलचल नहीं हुई। उसने थैली सिरहाने रखी और सिर पर हाथ फेरने लगा पर मां को कोई असर नहीं हुआ। पचहत्तर साल की बुढ़िया न जाने क्या बेचकर सोई थी। इससे ज्यादा गहरी नींद को तो मौत कहा गया है। ऐसे में राघव क्या करता, उसने जोर से चिल्ला दिया, "मां!"

मानो शब्दों से जान वापिस आगई हो। बुढ़िया झट से सांस अंदर लेते हुए जागी और बोली "गधे! ऐसे न उठाया कर, मेरी जान चली जाएगी।"

"चली ही गई थी। मैं तो वापिस लाया हूं।" जब बुढ़िया की आँखें थोड़ी साफ हुई तो उसने पाया कि घर के दरवाजे से लेकर कमरे की चौखट तक का आंगन भीग गया है।

"तेरे को कितनी बार कहां, छाता लेके जाया कर।" 

"मां वो सब छोड़ना। यह देख मैं क्या लाया।" राघव ने केक का डिब्बा निकाला और अपनी मां को दिखाया। उसे देखकर बुढ़िया इतनी खुश हुई, जैसे उसकी नींद में आया हुआ ख्वाब सच होगया हो। उसके मुंह के दांत घिस चुके थे, उसकी आँखें लाल हो रखी थी मगर फिर भी जब उसने दोनों को आश्चर्य से खोला, राघव को सुकून महसूस हुआ और वह मुस्कुराने लगा।

दोनों बड़े शौक से केक खाते खाते इधर उधर की गप शप में लग गए। घर में उनके सिवा और कोई नहीं था, जो उन्हें कह सके कि इसपर पहले मोमबत्ती लगाते है, कि इसे हाथ से नहीं चाकू से काटकर खाते है। उन्होंने तो मोमबत्ती टोकरी में डाल दी ताकि बिजली जाने पर काम आ सके। कुछ देर बाद दोनों वहीं सो गए। पास पड़े केक के डब्बे पर चींटियां घूमने लग गई और बाहर सुख रहे राघव के गीले कपड़े झरते रहे।

जब सुबह हुई तो मौसम साफ था। पास के मंदिर में चल रही पूजा ने राघव को जगा दिया। वह आधी नींद में चलता हुआ घर के बाड़े में लगी एक नलकी तक पहुंचा और मंजन करने लगा। धीरे धीरे उसकी नींद खुली।

"मां, उठ। एक चाय बना दें फिर मैं काम पर जाऊं।... उठना मां और कितना सोएगी। आज तो तू मंदिर भी नहीं गई। ऐसे बड़ी भक्त बनी फिरती है। आज क्या हो गया...मां।" धीरे धीरे उसकी आवाज धीमी होती रही।

"मां...अब उठ भी जा, मुझे लेट हो जाएगा।" फिर अपने भीतर  पनपते डर को नकारते हुए, चेहरे पर झूठी मुस्कान लाकर कहने लगा,

"अरे ओ लक्ष्मीबाई, अपने बच्चे को चाय तो पिला दो। असली वाली तो गले से लगाए रखती थी।" उसके बाद राघव को जो महसूस हुआ, वह खालीपन, वह सन्नाटा जिसमें कोई सवाल, कोई मंसूबा, कोई खयाल मन को छू नहीं पाता, उसके लिए वह तैयार नहीं था। 

इस बार बूंदे उसकी आंखों में से गिरी। घबराते हुए उसने बुढ़िया का हाथ लिया और नस पर अंगूठा रख के देखा। फिर कांपते हुए होंठ खोले और कहां "मां...तू चली गई।"

उसके बाद कुछ वक्त राघव की जिंदगी में क्या चल रहा था, इसकी उसे भी खबर नहीं थी। वह चुप चाप सब कुछ देखता रहा। लेकिन आज जब वो और आरव उसी जगह बैठे है जहां उस वक्त बीड़ी पिए थे, राघव ने अपना मुंह दोबारा खोला और कहां "तू सही था, शायद।"

"छोड़ न यार, भगवान होगे कहीं...शायद।"

"मेरा वाला तो मर गया।"

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