
ग़ालिब
ग़ालिब, शौक से पढ़े जो गुफ्तगू तेरी
आँखें कहे गर ऐसा तो तंज कसते है
न समझ न सलीका जिंदगी का कोई
फिर क्यों ये परवाने रंज में सजते है
मुझे न फिकर किसी तौर की जब
लफ्ज़–ए–जिगर गाली से सस्ते है
भड़क उठेंगे जो मेरे एक सवाल पर
यह बेताब बदनसीब मुझे परखते है
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