जायका रेस्टोरेंट

गहरी रात, झपकती रेडलाइट, ऊंची जमीन और निचली सतह के बीच में से एक सड़क गुजरती है। यह इलाका शांत नहीं मगर यहां गाड़ियों से ज्यादा पक्षियों की चहचहाहट है। आधे से थोड़ा कम चांद, जरूरत से थोड़े ज्यादा बादल और हल्की गीली मिट्टी की महक के सिवा अगर कुछ गौर फरमाने लायक है तो सड़क के किनारे बना एक ढाबा – जायका रेस्टोरेंट।

"यार कल से फिर क्लास चालू और माथापच्ची शुरू। वही सुबह जल्दी उठो, आधी नींद में क्लास जाओ। किसी तरह हफ्ता निकालो–"

"क्या बे रंडीरोना करता है। चुप रह ना थोड़ा सा, शांति चाहिए मेरेको अभी। ये मनीष भाई भी पता नहीं कितना टाइम लगाते है खाना बनाने में।"

रेस्टोरेंट की उपाधि वाले इस ढाबे में मुश्किल से पांच टेबल थी, जिसमें से तीन बाहर और दो एक कमरे में लगी हुई। खैर इसे कमरा भी नहीं कहे तो बेहतर है। जितनी कलाकारी इसकी दीवारों पर यहां आने वाले नशेड़ियों ने की है, अजंता एलोरा की गुफाएं भी शर्म से खुद को बंद करदे।

"अच्छा वो नयन का क्या हुआ? बोला था कोई काम निपटा के आ रहा है।"

"चाटू साला। संडे को भी प्रोफ़ेसर की चाँटेगा। गया होगा उसी के घर काम के बहाने।...भई,
इस जमाने को कहां कदर है,
मुरझाते अफसानों की,
इन्हें तो पसंद है खुशबू,
खिलते हुए बागानों की।"

"वाह वाह क्या बात! क्या बात! हल्की सी दारू तेरे अंदर का शायर जगा देती है आरव।"

"हैना। अब दारू ने तो शायर जगा दिया, जो भूख लगी हुई है वो मनीष भाई मिटा दे तो कमाल हो जाए, नहीं? क्यों मनीष भाई?"

आरव सुनकर ऐसा लगता है कि किसी अमीर बाप की बिगड़ी औलाद होगा, और उसका साथी? वह सीधा दोस्त जिसे दुनिया की ज्यादा समझ नहीं है। नयन के बारे में कुछ कहना अभी सही नहीं, जो किरदार भूमिका में है ही नहीं, उसपर कैसी टिप्पणी!

मनीष भाई के नाम पे चलने वाला ये ढाबा केवल इसलिए मशहूर है क्योंकि इसके पास में ही एक सरकारी कॉलेज है। वहां के बच्चे, बेचारे मेस के सड़े खाने से परेशान होकर अक्सर शाम को यहां बिखर जाते है। यही कारण है कि इस ढाबे में हर चीज दुगुनी कीमत पर मिलती है, चाहे सब्जी हो या दारु। मगर एक चीज मुफ्त मिलती है – कहानी। बस वही लेने आया हूं।

"ये लीजिए क्लब सैंडविच और पेरी पेरी फ्रेंच फ्राइज, विनीत भाई आपका बर्गर बस दो मिनट में आया।" 

"हां हां आराम से, मैं आरव का सैंडविच चखता हूं तब तक।"

"अबे ए! ये फ्रेंच फ्राइज खा ले। सैंडविच का पैसा शेयरिंग में नहीं है तो शेयरिंग भी नहीं होगी।" ये कहकर आरव ने सैंडविच दबोच लिया। फ्रेंच फ्राइज के प्लेट भी थोड़ी ही देर में खाली हो गई। बर्गर तो नहीं आया पर उससे पहले नयन आ गया।"

"क्या सालों? मेरे लिए कुछ मंगाया के नहीं।"

"पानी मंगाया है। चाट चाट के थक गए होगे।"

"क्या यार आरव, आज तो कुछ काम की ही खबर लाया हूं तुम लोग के लिए।"

"क्या?" विनीत ने पूछा। नयन ने अपने दोनों हाथ टेबल पर रखे और झुककर कहने लगा,

"कल अपना सरप्राइस टेस्ट है।"

"जाने अवे झांटू, हम ही मिले है क्या तुझे सुबह से।"

"आरव सच्ची यार! मैं दोपहर को जब सर के केबिन में था, वे मुझे कुछ फाइलें थमा के कोई मीटिंग को चले गए, मैं सारी फाइल्स जमा रहा था कि तब मेरी नजर उनके लैपटॉप पर पड़ी।"

आरव के चेहरे के तेवर अब बदल चुके थे। उसके हाथ में व्हिस्की की ग्लास बस हवा में थमी हुई थी और उसकी आँखें नयन पर टिकी हुई। विनीत तो इस सब में अपना बर्गर भी भूल चुका था।

"उनके लैपटॉप पर वर्ड फाइल खुली थी। उसमें दो सवाल पूरे थे और एक अधूरा। उसकी हेडिंग थी सरप्राइस टेस्ट और क्लास का बैच, हमारा वाला।" आरव का हाथ अब कांप रहा है। विनीत चौंका हुआ नयन को देख रहा है मगर भूखा होने के कारण उसकी उंगलियां फ्रेंच फ्राइज की प्लेट में बचे सॉस को चाँटने में लगी है, जिसका उसे अंदाजा भी नहीं है।

"उसपे मार्क्स लिखे थे पंद्रह और तारीख थी...कल की।"

"हारामखोर प्रोफ़ेसर!" आरव ने व्हिस्की की ग्लास जमीन पर फेंक दी।

"साला दो दिन पहले क्लास में बोला था ‘इस बार वाला टेस्ट मैं बता कर लूंगा’। मुझे तब भी लगा था कि यह काटेगा।" पास में मनीष भाई आए और नीचे बिखरा कांच समेटने लगे। विनीत वैसे आरव की तरफ से सॉरी बोलना चाहता था पर उसका बर्गर अभी तक आया नहीं था इसलिए बस आँखें छोटी करके घूरता रहा। इतने में आरव बोला,

"अबे पर तू दो सवाल तो देखा न, उतना तो बता दें, काम होजाएगा।"

"पागल है क्या इतना ध्यान से थोड़ी देखा था मैंने।" नयन आंख चुराते हुए बोला। आरव ने उठकर उसकी कॉलर पकड़ ली।

"कुत्ते..वर्ड की फाइल देखा, कितने सवाल है वह देखा, हेडिंग, तारीख, बैच सब देखा, क्या सवाल है वो नहीं देखा?"

"मैं चीटिंग नहीं करता।" नयन ने घबराते हुए कहां।

"इसकी मां का–" आरव एक घूंसा तो मार ही देता पर विनीत बीच में आगया।

"छोड़ न यार आरव। पूरी रात पड़ी है अभी, तैयारी तो कर लेंगे। तीनों साथ बैठेंगे तो हो जाएगा।"

यह सुनकर नयन बोला "तुम दोनों करो, मेरा होगया।"

"कब किया?"

"दोपहर से वही कर रहा था।"

अब तो थोड़ा गुस्सा विनीत को भी आने लगा। वह बोला, "तुझे अगर दोपहर से पता है तो हमे बता नहीं सकता था? ऐसे क्या करता है नयन।" 

विनित आरव की तरफ मुड़ा की कहीं वो फिर लड़ने पर न आजाएं मगर इस बार आरव ने कुछ नहीं कहां। क्योंकि आरव तो दूसरा ग्लास टिकाने में लगा था, जो मनीष भाई लेकर आए ही थे। विनीत अब भी बस उन्हें घूरता रहा। इतने में नयन बोला,

"मनीष भाई मेरा भी ऑर्डर लेते जाओ। विनीत क्या मंगाऊ, बर्गर के सैंडविच?"

"बर्गर तो मत ही मंगा।" विनीत ने मनीष भाई को देखते हुए कहां। इसके बाद कुछ देर तक माहौल शांत रहा, दोनों का खाना भी आगया। लेकिन फिर अचानक आरव रोने लगा।

"साला ऐसा क्या गलत किया बे मैं, जो ये सब देखना पड़ रहा है?" विनीत ने पहले टेबल पे देखा, दो ग्लास खाली पड़ी थी। फिर उसके लटकते हाथों को देखा, एक ग्लास आधी भरी हुई थी।

"घर बड़ी प्यारी जगह होती है दोस्तों, वहां न कमिना प्रोफेसर होता है, जो बच्चों की मारने पे तुला हो, और न ही कमिना दोस्त होता है, जो अपने ही दोस्तों से इतनी जरूरी बात छुपाए। वहां तो बस मां का प्यार होता है।" ये कहते हुए जितना आरव रो रहा था, इतनी उसने पी भी नहीं थी। विनीत नयन की तरफ झुका और बोला,

"यह तो टल्ली हो गया। मेरे मदद कर इसे अंदर लेजाने में। गार्ड को पता नहीं चलना चाहिए।"

"कल के इसके टेस्ट का क्या?"

"यह तुझे अब सूझ रहा है, पहले बताना चाहिए था न। कोई नहीं अब, सुबह फटाफट चैट–जीपीटी में देख कर पढ़लेंगा। ए.आई. कौनसे सवाल आ सकते है और उनके जवाब क्या है, दोनों बता देता है। पिछली बार भी इसने यही किया था।"

"माफ करना यार, कल ही टेस्ट है इस टेंशन में मैं बताना भूल गया। मैंने तो अभी तक आशी को भी नहीं बताया।"

"अच्छा किया प्रभु, बस अगली बार से ध्यान रखना। अब चले?"

"हां हां" नयन ने कहां और दोनों गिरते पड़ते आरव को अपने कंधों पर टिका कर चल दिए। मनीष भाई ने हिसाब खाते में लिख दिया और बाकि टेबल्स में उलझ गए। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। मगर यहां हर टेबल की कहानी कुछ ज्यादा अलग नहीं है। कुल पांच ही तो है। हर टेबल पर कोई आरव है, कोई नयन है तो कोई विनीत, बस नाम अलग है। इनमें कुछ बच्चे है, जो अपनी इच्छा से यहां पढ़ने आए थे, कुछ है जो बाप की मर्जी से, मगर किसी को भी वो नहीं मिल रहा जो चाहिए – वजूद। कॉलेज में पढ़ाई के नाम पर केवल तारीखें है, मदद के बजाय शक है, और मजबूरी के कारण तलब, अब वह दारू हो चाहे बीड़ी।

लगभग सारी कॉलेजों का यहीं हाल है। पढ़ाई का मतलब क्या और क्यों है, इससे अब किसीको फर्क नहीं पड़ता। प्रोफेसर यह सोचता रहता कि इतना पढ़ लिख कर भी कुछ कमा नहीं पाता, बच्चा यह सोचता रहता है कि बड़े नाम के कॉलेज में भी प्रोफेसर ढंग से नहीं पढ़ाता। अब ए.आई. के आजाने से बस काम निपटाना आसान होगया है, समझना नहीं। कमाल हैना, आज मशीन को इंसान बनाने की इस दौड़ में इंसान मशीन बनता चला जा रहा है।

मेरा ध्यान इन्हीं सब बातों में था जब मनीष भाई मेरे पास आए और मुझे कंधे पर झटका देकर पूछे,

"भाईसाब, आप कुछ लेंगे भी?"

"नहीं मेरा होगया। स्वाद अच्छा था।"

"किसका? पानी का?" हंसते हुए बोले।

"नहीं नहीं, कहानी का।" कहकर में चल दिया।

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