
जल जाना सभ्य नहीं
(1)
आंखों के तले,
छिपे कुछ आँसू,
मन की चिंगारी है
इन होठों से दूर रहो,
जल जाना सभ्य नहीं
...
मौन मुख,
बंद नयन,
रूह की लाचारी है
इन शब्दों से दूर रहो,
जल जाना सभ्य नहीं
...
सुनो क्या? जब सुना,
तो कहां गया सुनना बेकार
कहे क्या? जब कहां,
तो मिला सुननेवालों से धिक्कार
हर नस, हर क्षण,
हर दिल, हर जन,
को एक ही बीमारी है
इन बातों से दूर रहो,
जल जाना सभ्य नहीं
(2)
चेतन कुंड,
समय जरावन,
प्रज्वलित हो परिवर्तन-ज्वाला
नेत्र स्रुवा,
अश्रु आहुति,
हो निज स्वप्नों का प्याला
ताप प्रबल
सुर्ख आवेश
स्व: तमस की संहारी
अश्व वेग–सी
लोह जलाने
काफी बस एक चिंगारी
...
जब धधके ये ज्वाला दिल में
स्वेद से भीग जाए ललाट
इसी स्वेद को छटकाके
देना उन वशीभूतों को प्रमाण
जो कहते थे दूर रहो,
जल जाना सभ्य नहीं
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