ख़तम।

आज चले एक कलम
तो लिखना एक ही शब्द।

न सच, न सितम,
न प्यार के सिलसिले।

न खुशी, न दुखी,
न कोई अनकहे गिले।

एक रात, एक दिन
न लगे जब अलग, तब
सुनाई देता
दिल के अंधेरों से शब्द

वही,
बस वही,
हाँ वही कि सब —
“ख़तम।”

गुनगुनाता ख़्वाब
अब शोर करने लगा है।

क्यों हर रस–भाव
फीका लगने लगा है जैसे
जीभ है, जीव है
पर एहसास खो चुका है।

क्या मेरा मक़सद
मुकम्मल हो चुका है?

नहीं!
तो फिर क्यों न बाकी
कोई आग, कोई जलन,
जो कहते हैं 
दिल की चिंगारी,
है किधर?

या था ही न कभी
कुछ भी
सिवाय एक ठंडा बदन,
शायद गर्माया, चमका
बस दूसरों के कारण।

फिर
जान चुका है असलियत अपनी,
तभी
कहता रहता है,
जपता रहता है, क्या?

वही,
बस वही,
हाँ वही कि सब —
“ख़तम।”

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