क्षणिकाएँ - 1

एक चांद है खिला हुआ
एक रात है ढकी हुई
किस ओर खड़ा इन्हें देखूं मैं
ना है फ़लक, ना है जमी

अजीब इत्तेफाक जिंदगी तूने किया
चांद को बादलों का सेहरा दिया
चाहकर भी मुझे देख पाए न जब
फिर क्यों यह खूबसूरत चेहरा दिया

एक शर्म ने इत्तिला किया
मैं कितना शर्मसार हूं
जिंदगी समझती चली गई
मैं आज भी बेकार हूं

यह तो मौसम का मिजाज़ है
दोपहर को शाम करदे
सूरज जब उड़ने लगे
बादल बदनाम करदे

काफिरों सी जिंदगी है
सवाल सारे सिफर है
मेरी रूह मर चुकी है
मेरा तन बेखबर है

कितना हसीन मौसम है
क्यों न इसमें ढल जाए
जैसे आग में जल जाते है
बारिश में पिघल जाए

वाह रे आँखें! देख ज़रा,
तू कैसे पहेली बुझाता है
सवाल भी तू ही रखता है,
जवाब भी तू ही छिपाता है

साथ, समझ और सादगी,
सब मिले तो मिले है खुशी
पर सच है समय का भागी,
कब किसने सनक न चुनी

मिलती तो अब भी है,
हर राह पर सूखी पत्तियां
कोई दबा देता है,
कोई जला देता है

किसके शब्द है नए यहां
सबकी चाल पुरानी है
मिलना, जानना, मानना, छोड़ना
सबकी वही कहानी है

 

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