क्षणिकाएँ - 2
बिखरे अरमानों के पीछे भी झांक आँखें
कोशिशों से आशियाना, कितना चमक उठा है
ख्वाइशों के दरमियान एक अनकहे सबाब हो
यहां में भी बेहिसाब हूं, यहां तुम भी बेहिसाब हो
एक लम्हा, अतीत का चुरा ले ज़िंदगी
फिर देख कैसे बिखरता है वजूद मेरा
टुकड़े टुकड़े करके अब ये ना पूछो मालिक
उम्मीद से घर बसाना कितना मुश्किल है
तेरे लफ्जों के बीच कहीं मेरी जरूरत छिपी है
ये ना तू समझ पाता है, ना मैं पकड़ पाता हूं
हर कांच के टुकड़े में जाकर देखा मीत
मगर नज़र तो मैं तेरी आंखों में ही आया
कोई कहदे बस की खास है हम
एक इंसानी रूह को और क्या चाहिए
कितना अंधियारा वहां होता होगा आँखें
जहां तारें देखने के लिए दिये जलाने पड़ते हो
जब कली खिली बागान में, किसीने न परखी सूरत
अब मुरझाने पर न कहो, गुलाब था तो खूबसूरत
एक जुर्म मुझसे इश्क में कुछ इस तरह हुआ
मैं रोज तुझसे मिला, एक पल भी तेरा न हुआ
अच्छा बुरा है माया आँखें, इंसान दो तरह ही
एक जिन्हें मैं जानता हूं, एक जिन्हें मैं नहीं
न पूछो हमसे आँखें, मजबूरी का कारण
हम बेखबर बदनसीब बस यूहीं जी रहे है
कितने पत्थर फेंकोगे, कभी तो समझो आँखें
ये दिल आवारा पानी है, हिलना इसकी मनमानी है
सोहबत मिली भी तो एक पानी के छींटे की
कैसी भी सोच हो मेरी, उसकी हामी थी
कहां वक्त मिले कि सोच सके आगे का,
उन्होंने हाथ क्या लगाया, हम खुश हो लिए
