
लेटा रहा मैं बिस्तर पर
लेटा रहा मैं बिस्तर पर,
सब सोच समझ न आया मुझे,
क्यों जी रहा जो मुश्किल है?
क्यों रोक सका न पाया तुझे?
आंसुओं की एक धारा,
और चादर पर जा गिरी।
सूख गया मन अंदर से,
हक़ीक़त फिर भी न मिली।
समझ आए सच भला!
क्यों अकेला रहना चाहूं मैं?
हर बार मौका दे जिंदगी,
हर बार कतरा जाऊं मैं।
ये तकलीफ तकलीफ न लगे,
ये आरज़ू चुभती है अब तो।
मेरी ख्वाइशों की आज़ादी,
दीवार लगती है मुझको।
लिखना हुआ नसीब अगर,
मैं निसार करता हूं।
रुक नहीं सकता मगर,
इंतजार करता हूं।
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