
मेरी छत के किनारे एक बिस्तर पड़ा है
मेरी छत के किनारे एक बिस्तर पड़ा है
थोड़ा टेढ़ा, थोड़ा टूटा, थोड़ा हो गया कड़ा है
इस बिस्तर पर कोई गद्दा नहीं
इस बिस्तर में मगर सुकून बड़ा है
ये घर मुझे गए बरसो हो चुके है
अब धूल भी अपने निशान छोड़ रही है
जो फुसफुसाया करती थी सारी नोंक झोंक
उन दीवारों को क्या मैं याद भी रहूंगा?
मगर छत के किनारे वो जो बिस्तर पड़ा है
बचपन से जवानी, जिसपर गुजर गई
अब बेचैन, रात को हम दोनों देखते है
ये सितारें ठीक वैसे ही, बदलते क्यों नहीं?
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