
ना-खून
मेरे कमरे की खिड़की के आगे एक पट्टी है। इस पट्टी के किनारों पर कुछ जाले हैं, एक मकड़ी का परिवार इनमें रहता है। बाकी पूरी पट्टी धूल से सनी है। मगर एक किनारे से थोड़ी ही दूर, एक नाखून का टुकड़ा पड़ा है।
यह टुकड़ा जाना–पहचाना है। मेरी दाएं हाथ की पहली उंगली का, नहीं! अंगूठे का। शायद दाहिने पैर के अंगूठे का? हां, हो सकता है। एक अजीब सा आकार है इसका। मानो, काटा नहीं छीला गया हो। जैसे नाखून हाथों से छीलते वक्त आगे का हिस्सा अधूरा ही बाहर आया हो।
यह नाखून कब से है यहां पर? किसे पता। कहते हैं मरने के बाद हड्डी और नाखून आसानी से नहीं गलते। इसलिए इसकी उम्र का अंदाज़ा लगाना नाइंसाफी होगी। लेकिन उस नाखून पर लाल निशान है। ये रंग गहरा और फीका हो रखा है, मगर अब भी साफ तौर पर दिखता है।
इसके जैसे ठीक चौदह और नाखून मुझे याद हैं। पांच मेरे दाहिने हाथ के और नौ पैरों के। इकत्तीस दिसम्बर की वह रात, जहां सब यह साल भूलने में मशगूल थे, मैंने कुछ ऐसा कर दिया कि अब याद न रहना मेरे काबू में नहीं। वह चीख बार–बार मेरे कानों में गूंजती है, वह दृश्य मेरी आंखों पर परत बनकर चिपका हुआ है। सभी की तरह निकला तो मैं भी था साल की आखिरी रात बिताने, मगर एक गलत रास्ते पर मैंने मेरी जिंदगी मोड़ दी।
ब्लैक जैकेट व जींस, डार्क ब्लू ग्लव्स और ब्राउन शूज़ पहने मैं अकेला बाइक पर सवार था। रास्ता थोड़ा सुनसान था, मगर जिस बंगले में दोस्तों ने पार्टी रखी थी, सुनने में आलीशान लग रहा था। ये लोग पिछले दो हफ्तों से मेहनत कर रहे थे इस पार्टी के लिए। बंगला बुक करना, डेकोरेशन, स्पॉन्सर्स, खाने व ड्रिंक्स का हिसाब–किताब, लोगों को इन्वाइट करना वगैरह। बंगला शहर से थोड़ा बाहर एक पहाड़ी इलाके में बना हुआ है। यहां हर थोड़ी दूर पर कुछ बस्ती थी, पर आमतौर पर इलाका जंगली था। न जाने किन ख्यालों में खोया हुआ मैं गलत रास्ता ले बैठा।
पांच–सात साल पहले एक सरकार ने यहां रोडलाइट लगवाई थी, कुछ साइनबोर्ड भी डाले थे। पर फिर सरकार बदल गई और उसे इस क्षेत्र से वोट नहीं मिले, इसलिए फर्क भी नहीं पड़ा। अब गिनती मात्र लाइटें काम करती हैं और साइनबोर्ड तो जमीन में गड़ चुके हैं। सोने पर सुहागा करने मेरी बाइक की लाइट भी ठीक से नहीं चल रही थी। कभी भी बंद हो जाती थी।
ऐसी परिस्थिति में मोड़ से करीबन दो किलोमीटर दूर मुझे चीखने की आवाज पहली बार सुनाई दी। फिर एक और बार। वापस पर इस बार दबी हुई। मैं डर गया और गाड़ी भगाने लगा। बचपन में जंगल–भूतों वाली कहानियां सुनकर शायद आप कह दें कि मुझे डर नहीं लगता, पर जब माहौल सजता है तो अच्छे से अच्छा शेर भी मूत देता है।
मेरी बाइक की लाइट उस वक्त बंद थी जब मैं किन्हीं के पास से गुजरा। शायद एक लड़का और लड़की सड़क से थोड़ी दूर पेड़ों के बीच लड़ रहे थे। दोनों बस साए से महसूस हुए। मैं गाड़ी नहीं रोकता अगर वह चीख दोबारा न सुनाई देती।
"छोड़ मुझे कुत्ते!"
"रंडी साली, तू जाएगी कहां?"
"बचाओ मुझ––" और फिर आवाज दब गई। वह लड़की शायद मुझे पुकार रही थी। मैंने थोड़ी आगे जाकर गाड़ी रोकी ताकि नज़र में न आऊं। मेरे हाथ कांप रहे थे। भयंकर ठंड और पहाड़ी हवा में भी मेरा बदन पसीने से भीगने लगा। मेरा एक हाथ चाबी को धीरे–धीरे घुमा रहा था, कभी चालू करने के लिए तो कभी बंद करने के लिए। मुझे समझ नहीं आया कि करूं तो करूं क्या। ठीक इस वक्त एक और चीख सुनाई दी। इस बार बस गुस्सा नहीं, दर्द भरा था इस चीख में। जैसे किसी की उंगलियां दरवाजे में आकर कट जाए, नहीं। जैसे कोई डॉक्टर आपके पैरों के तल में एक साथ मोटी सुई के दस इंजेक्शन भोंक दे, शायद ऐसा। मेरे लिए दर्द को समझना मुश्किल था पर फैसला मेरे हाथ कर चुके थे। चाबी बाहर थी।
मैंने जूते उतार दिए और दबे–दबे पांव से पीछे चलने लगा। मैंने हाथ में फोन लिया ताकि कभी टॉर्च चालू कर सकूं। मुझे वे साए वापस दिखे। उस लड़के ने एक हाथ से लड़की के बाल पकड़ रखे थे और दूसरे से उसे चांटे पर चांटे जड़ रहा था।
"हं... मुझसे भागेगी... लोगों को... हं... बुलाएगी, भड़वी!"
उस लड़के ने जिस हाथ से बाल पकड़ रखे थे, उसमें कुछ और भी था। कुछ लकड़ी? नहीं, चाकू जैसा। मैं अभी तक उसकी नज़र में नहीं आया था, पर शायद लड़की मुझे देख चुकी थी, इसलिए वह चुप हो गई थी। मेरा दिमाग उस वक्त एक अलग स्थिति में था। मैं धीमे–धीमे आगे बढ़ने लगा। अब तक मेरे पांव शांत थे, लेकिन अचानक कुछ पत्तों का गुच्छा पैरों में आ गया। आवाज होते ही मैंने टॉर्च लड़के की तरफ ऑन कर दी। दो सेकंड के लिए वह चौंक गया। यही मेरा मौका था। मैंने झट से उसे पेट पर लात मारी और हाथ दबोच कर चाकू लिया।
इस वक्त तक मेरी नजर उसके चेहरे पर नहीं गई थी, पर अब जब वह जमीन पर गिरा हुआ और मैं उसके ऊपर था, मैं ठीक वही देख रहा था। वह उम्र में मुझसे बड़ा लगा। उसके कुछ बाल सफेद थे। उसका निचला होंठ कांप रहा था और आंखें डर से चौंकी हुई थीं। मैं उसकी नंगी रूह को देख पा रहा था।
शायद वह भी मेरे अंदर का डर देख पा रहा था। जैसे ही उसने बचने के लिए अपना हाथ उठाया, मैंने चाकू उसकी आंख में डाल दिया। वह चिल्लाया, पर अब कोई रास्ता नहीं था। बिना सोचे, मैंने चाकू निकाला और गले में घुसाया। फिर निकाला और पेट में घुसाया। उसमें से निकल रहे खून से मेरे पांव भीग चुके थे। खून की एक धारा पास में गिरे हुए मेरे फोन तक पहुंच गई। फोन उल्टा गिरा हुआ था। टॉर्च में से निकल रही रोशनी लाल हो गई।
आखिरी बार चाकू मारने के बाद मुझे होश आया। मैंने अपने हाथ से उसके पेट पर किए घाव को छुआ। उसका खून ग्लव्स के धागों के बीच में से रिसता हुआ मेरी चमड़ी को महसूस हुआ। मैं घबराकर पीछे हट गया।
मेरा दिल बार–बार मेरे सीने से आकर भिड़ रहा था। मेरा बदन अकड़ गया था। मेरी नज़र उस लड़की पर पड़ी। वह ऊपर से नंगी थी, इसलिए शायद पेड़ के पीछे छुपी हुई थी। लाल रोशनी में मुझे उसका चेहरा ठीक से नहीं दिखा। मैंने उठने की कोशिश की। मेरे पांव लड़खड़ा रहे थे। किसी तरह मैं फोन तक पहुंचा। उसके बाद मैंने जैकेट उतारा और उसे दिया। मेरी आवाज में बस हवा और कंपन थी जब मैंने कहा,
"यहां... यहां जो हुआ... जो हुआ किसी को भी प... पता.. न चले।"
वह मेरे मुकाबले थोड़ी शांत थी। कतराते हुए बोली,
"मैं ना कहूंगी। आप मुझे यहां से––"
"नहीं! खुद जाओ। हम... साथ न... नहीं दिख सकते।"
मैं फौरन वहां से भागने लगा। सीधा मेरे अपार्टमेंट आया। शरीर व कपड़ों से सारे खून के निशान मिटाए। मेरा जैकेट वैसे भी दे चुका था। किस्मत से जींस पर मामूली धब्बे थे। पांव व हाथ रगड़कर धोए। नाखून भी काट कर फेंक दिए और चुपचाप बिस्तर पर जाकर लेट गया। बाहर से पटाखों की आवाज आने लगी। नया साल शुरू हो चुका था। हर साल ऐसा होता है, मगर इस बार मैं अलग था। मुझे खुद से अलग महसूस हुआ। मुझे खुद से घिन आ रही थी। मैं जोर–जोर से, गला फाड़–फाड़ कर चिल्लाया। उन पटाखों की धूम में मेरी चीख दफन हो गई।
अब एक महीना बीत चुका है। न जाने उस लाश का क्या हुआ होगा? कितनी ही रातें मैं बिना सोए बिता देता हूं ताकि अखबार आते ही सबसे पहले खबरें जांचूं। आज तक ऐसी कोई खबर नहीं आई। अक्सर शाम को खिड़की से बाहर झांकता हूं तो वह पहाड़ी नजर आती है। उस पहाड़ी से लड़की की चीखें मेरे कानों में गूंजने लगती हैं। खिड़की से आ रही रोशनी लाल रंग की हो जाती है। मुझे नफरत, गुस्सा, चिढ़ महसूस होती है, पर मैं खिड़की बंद नहीं कर पाता। हर बार बस देखता रह जाता हूं।
आज मुझे ये नाखून पड़ा मिला। मेरी आंखें इसी नाखून पर टिकी रह गईं। क्या ये उस वक्त का हो सकता है? जब वहां से निकलने ही लगा था, मैं घबराया हुआ था। गलती से मेरा दाहिना पांव एक भाटे से टकरा गया। मैं गिर गया। हांफते हुए मैंने उठने की कोशिश की, पर मेरे पांव बहुत भारी महसूस हुए। ऐसे में उस लड़की ने मुझे हाथ दिया और उठाया। मैं खड़ा तो हो गया, पर चल न सका। उस वक्त मेरे पास बस चौदह नाखून ही थे। मेरे दाहिने पैर के अंगूठे का नाखून छिल गया था। लेकिन मुझे अचंभा हुआ कि कोई इतना शांत कैसे हो सकता है। एक सवाल मेरे मन को चुभने लगा। बिन मुड़े मैंने उससे पूछा,
"वहां था कौन?"
"मेरे... बाबा।"
मैं मूर्ति की तरह स्थिर हो गया। मेरे ख्याल एक खाली, काले कोहरे में धंसे थे। मेरा सिर अपने आप नीचे झुक गया। कटे नाखून में से मेरा खून बह रहा था। उस लड़के के खून से मिलने लगा था।
"मुझे... माफ कर देना।" मैंने उससे कहा और वहां से भाग गया। उसे देखने की मुझमें हिम्मत नहीं थी।
एक सवाल और है जो हर वक्त मुझे चुभता है, लेकिन इसका जवाब शायद मुझे कभी न मिले, ‘क्या मैंने सही किया?’
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