फैसले

ये टूटे मकान, ये गुज़रती गाड़ियाँ,
इन फटे कपड़ों से हमदर्दी —
जिस चाह को ठुकराकर भागने लगूँ,
वही क्यों मंज़िल बनकर मिलती?

जैसे कोई मोड़ रहा हो चेहरा मेरा,
जैसे कोई धकेल रहा हो बार-बार,
जैसे कोई खींच रहा हो हाथ मेरे,
और चिल्ला रहा हो "अबे चल न यार,

रुकता क्यों है साले?
क्या हुआ अगर तेरे पाँव खून से लथे हैं?
क्या हुआ अगर सामने बस दीवार है?
जा भिड़ जा उसमें, मर जाएगा मगर,
मरते मरते कह सकेगा — 'मैं रुका तो नहीं।'"

"अरे बावले, जीवन में मतलब का तो बस एक सवाल,
क्या है ज़रूरी — जीना या पाना?"

हर बार पूछता है मुझसे यही,
हर बार सोचता हूँ मैं —
दोनों क्यों नहीं?

कब फैसलों का मतलब चुनना हो गया?
क्या हर पहलू समझना फैसला नहीं?

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