
पटरियां
(1)
ये ट्रेन बीकानेर से निकलकर मुंबई तक जाती है। बीच में आबू रोड जंक्शन आता है, जहां मेरी बीवी रहती है। ईद के कारण दफ्तर से एक दिन की मोहलत मिली, आगे शनिवार और रविवार ही है, तो सोचा घर हो आऊं। मेरे चढ़ते वक्त मेरा डिब्बा खाली था, इसलिए सुकून से तपती गर्मी में मैं पानी बनता चला गया। मगर नागौर आते ही एक मोटा सारा परिवार चढ़ गया। जब पास से सैंडविचेज़ बेचते हुए कोई निकला, उनके बड़े लड़के ने झट से दो खरीद लिए, एक खुदके के लिए और एक अपने छोटे भाई के लिए। आजकल के बच्चे, न पैसे की कीमत है न जगह की कदर। खाकर कचरा सीट के नीचे फैंक दिया। इनके माता पिता को तो क्यों ही फर्क पड़ेगा, खुद भी इस नई पीढ़ी के जो ठहरे। कान में इयरफोन घुसाए खिनखिना रहे है। सरकार को भी कहां फर्क पड़ता है सफाई से। बस ए. सी. वाले डब्बे साफ करदो, काफी है। ऊपर से चकाचौंध रखने की आदत है सबको, अंदर से सब मैले हैं।
मगर इन दोनों को देखता हूं तो अपने बच्चे याद आ जाते है। मेरे दो लड़के और एक बिटिया है। बचपन में अक्सर उन्हें गुरु शिखर ले जाता था। उस वक्त मेरी नौकरी भी आबू में हुआ करती थी। और हां, जब उन्हें उदयपुर लेकर गया था, तब तो क्या ही कहना। चार दिन जो मस्ती, धमा चौकड़ी मचाई थी। एक अमन था उस वक्त। आज तो सब इस तकनीकी अफरा तफरी के परवाने बने फिरते हैं। लड़की को पढ़ने मुंबई क्या भेजा, ना के बराबर घर आती है। दोनों बेटे भी कोई तो स्टार्टअप करते है बैंगलोर में। अजीब बात है, दिवाली में लगने वाले दिए मेरे घर में आज कई ज्यादा है पर उनकी रोशनी पहले से कम हो गई है।
सूरज उतरने लगा है। फालना आ चुका है। कुछ देर बाद में घर पहुंच जाऊंगा। मेरे घर का एक कमरा हमने किराए दे रखा है एक छोटे से परिवार को। परिवार नया है, उनकी एक नन्ही सी बच्ची है। उसे ट्रेन बहुत पसंद है, हर बार मुझे लेने मेरी बीवी के साथ आ जाती है। डिब्बे में एक गरीब व्यक्ति मैले कपड़ों में खिलौनों से भरा टोकरा लिए गुजर ही रहा था तो सोचा उसके लिए कुछ ले लेता हूं। देखकर खुश हो जाएगी।
"भाई, ये ट्रेन पटरी वाला सेट कितने का है?"
(2)
पर मैं अभी अभी इलेवंथ में आया हूं। यह बात मैं अपने पापा से कहना चाहता था मगर उनका भी तो ट्रांसफर हुआ था। कैसे कह देता कि ये मेरी पढ़ाई के लिए एक जरूरी मोड़ है। ऐसा नहीं है कि मुझे सूरत से कोई दिक्कत है। उल्टा पढ़ाई करने के लिए वह जगह बेहतर ही होगी पर घर बदलना, वहां के रोजमर्रा को समझना, नए लोगों से मिलना, सब कुछ बचपन से मुश्किल रहा है मेरे लिए। हम ट्रेन में बैठ तो गए पर मन नहीं मान रहा था। जब भी ऐसे मन में उथल पुथल होती है, मैं कुछ खाने लग जाता हूं। इसलिए जब पास सैंडविच बेचते हुए कोई निकला, मैंने दो खरीद लिए और फटाफट खाने लग गया। डिब्बे के हमारे हिस्से में हमारे अलावा एक अंकल बैठे थे। अपने एक हाथ में पुराना स्कूल बैग दबा रखे थे और नीचे एक सूटकेस डाले हुए थे। हर बार जब भी मैं नजर ऊपर करता, हमारी तरफ देख रहे होते, वह भी ऐसे की हम जैसे बास मार रहे है। ये अंकल लोगों को लगता है कि इन्होंने ही झंडे गाड़े है, हम तो बस ऐश करते है। मेरे आगे आने वाली पढ़ाई अगर इनके टाइम में होती तो पता चलता।
मेरे छोटे भाई को पर ये घूर सकते है। उसके जितने मजे किसी को नहीं मिलते। दिन भर फोन में घुसा रहता है। इसको सलाह दूं भी तो कैसे, जब तक यह बड़ा होगा, ना जाने दुनिया कहां पहुंच गई होगी। कभी कभी लगता है मैं गलत समय में पैदा हो गया। किताबों में पढ़ा है कि पुराना वक्त कितना खूबसूरत हुआ करता था। दादू भी अपने समय के चर्चे सुनाते नहीं थकते। लेकिन अगर इतना अच्छा था तो हम आगे बढ़ें ही क्यों? कुछ तो कमी रही होगी।
जब फालना से गाड़ी निकली तो एक गरीब खिलौनों का टोकरा लिए डिब्बे में चढ़ा। वैसे तो मुझे ये अंकल बिल्कुल पसंद नहीं आए थे मगर जब उन्होंने उस गरीब से ट्रेन वाला सेट खरीदा तो थोड़े अच्छे लगे। शायद ये इन्होंने अपने बच्चे के लिए खरीदा होगा। शायद ये अपने घर जा रहे है। कतराते हुए मैंने पूछा,
"आपके बेटे को ट्रेन पसंद है?" वह थोड़ी देर तो चौंक गए, पूरे सफर में पहली बार कोई उनसे बात कर रहा था। उन्होंने पहले ट्रेन सेट के डिब्बे को देखा और फिर मुझे देख कर बोले,
"मेरी बेटी को।" और मुस्कुराकर खिड़की की ओर चेहरा मोड़ लिया।
(3)
शायद मैंने ज्यादा रुपए ले लिए। इतना भी नहीं बोलना था। मगर उसने भी सामने से कोई बहस नहीं की। सीधे सीधे बताए दाम पर कोई भला खरीदता है क्या। मैं दिन भर तीन ट्रेनों में घूमा हूं। एक ढंग की बिक्री नहीं हुई, ज्यादा से ज्यादा लोग बस ये छल्ले ले लेते है। मां बाप बोलते है क्वालिटी खराब है। बच्चों का दिमाग मोबाइल गेम्स से ही खुश है। ऐसे में कोई क्यों ही खिलौने लेगा।
फालना में जब रणकपुर एक्सप्रेस पहुंची, तो चढ़ते हुए यही सोच रहा था कि कुछ न बिका, तो कल से मैं भी जूस के डिब्बे बेचूंगा। गर्मी के बहाने, कुछ तो बिक्री होगी। मगर फिर एक भाई मिल गया, बोला ट्रेन सेट चाहिए। मैंने सब खिलौनों के टैग हटा रखे है ताकि कीमत बदल सकूं। कोई भी बिक्री नहीं हुई थी इसलिए लालच में आकर दोगुना दाम बोल दिया। मुझे लगा थोड़ा नीचे तो वो लाएगा ही मगर कुछ न बोला। बस ले लिया। पहले तो खुशी थी, पर अब दुःख हो रहा है। न जाने किस परिस्थिति में लिया होगा उसने। उसके डिब्बे के बाहर तो आ गया हूं पर घबराहट सी हो रही है। इससे पहले भी धोखाधड़ी की है मगर एकदम दोगुना शायद ज्यादा हो गया। उसे जाकर बोलूंगा तो तमाशा बन जाएगा।
जब ट्रेन आबू रोड पर रुकी तो वह खड़ा होकर मेरी तरफ आने लगा। मैं झट से नीचे उतर गया। वह उतर कर किसी महिला और बच्ची के पास चला गया। बच्ची को गोद में लिया और उसे वह ट्रेन सेट दे दिया। बच्ची बड़ी खुश लग रही थी। उसे देख मुझे मेरी छुटकी याद आगई। उसने अपनी पूरी जिंदगी पिता को बस ट्रेनों में मैगजीन, अखबार व किताबें बेचते देखा। तब उनकी कीमत थी, आज कोई नहीं खरीदता। मेरी बच्ची बस आठ साल की थी जब ट्रेन के नीचे आकर उसकी मौत हो गई। मेरी बच्ची का जिस्म ट्रेन से कुचलता गया और मैं कुछ नहीं कर पाया। मैं कुछ नहीं कर पाया। मां तो पहले ही गुजर चुकी थी। न सरकार ने कोई मदद की, न दोस्त कुछ कर पाए। गरीबों की दोस्ती में बस वादे ही चलते है।
मुझमें अब भी हिम्मत नहीं थी कि उस भाई को पैसे लौटा सकूं इसलिए जब वह टैक्सी बुलाने गया और उसकी बीवी का ध्यान भी कहीं ओर था, मैं बच्ची के पास गया और उसे पूरी टोकरी थमाते हुए कहां,
"ये तुम्हारे लिए, छुटकी।"वह खुश हुई मगर घबराई भी। बड़ी मासूमियत से मुझे बोली,
"पर आप ये मुझे क्यों दे रहे हो?"
"पुराना कर्ज चुका रहा हूं।" कहकर मैं वापस चल दिया। फालना की ट्रेन जो पकड़नी थी।
Comments