रास्तें

ये चौराहे, ये सड़कें, ये गलियां हैं कितनी सारी,
थक कर भी न थम रही हैं नजरें हमारी।

इन पथरीले रास्तों पर कदम निशान भी न छोड़े,
इन बदलते चेहरों में कोई मुस्काने कैसे जोड़े?

हर तकलीफ को मिल जाती है थोड़ी-सी हमदर्दी,
पर हर आरज़ू अकेली धक्के खा रही।

धूप–छांव, धूप–छांव, रोशनी रंग बिखेरे,
रूह भी साथ खेलने लगती है बेचारी।

ऐसे में हर मुसाफिर की अपनी एक तड़प,
ढूंढता रहे सब अब, अपना–अपना कब?

कब मिलेगी वो? कब मिलेगा यह?
कब बीतेगी रात? कब गुजरेगा कल?

न जाने कितने 'कब' — कितनों का वजूद है,
अंजानेपन के इस झूठ में लाखों मसरूफ़ हैं।

छोड़ो, क्या रखा है इन गहरी बिगड़ी बातों में,
तुम यह बताओ, क्या मिलोगी मुझको रातों में?

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