
रवीश
"रविश ये क्या है? तुमसे एक रिपोर्ट तैयार नहीं हो पाई?" बॉस ने आवाज ऊंची कर दी।
"पर सर मैं कल के इवेंट को ऑर्गेनाइज करने में लगा था?"
"तो? ये काम तो मैंने दो दिन पहले दिया था? एक प्रोजेक्ट रिपोर्ट अगर तुम साइड बाय साइड नहीं बना पाते हो तो क्या फायदा इस पोस्ट का?...चलो जाओ यहां से और कल शाम तक मुझे रिपोर्ट तैयार चाहिए।" ये कहकर उन्होंने रिपोर्ट की फाइल मेरे सामने टेबल पर फेंक दी। मैं कमरे से निकल गया।
शाम का वक्त था। मैंने फोन खोलकर टाइम देखा। ऑफिस हॉर्स खत्म होने में अब भी डेढ़ घंटा पड़ा था। मैं अपने कमरे में जाकर बैठ गया। लैपटॉप चालू करके काम करने की कोशिश की पर मन नहीं लग रहा था। थोड़ी थोड़ी देर में लैपटॉप अपने आप बंद हो जाता और मैं उसे फिर खोल के बैठ जाता। इतने में खिड़की से बारिश की आवाज सुनाई दी।
मेरा कमरा बिल्डिंग के तीसरे माले पर था। टेबल के पास ही एक कांच की खिड़की थी। मैं उठा और उसे एक सिरे से खोला। बारिश की आवाज तेज हो गई। बूंदों में लाइटों की चमक झलक रही थी। कुछ रोडलाइट्स की थी, कुछ गाड़ियों की, कुछ बिल्डिंगों की, कुछ मेरे ही कमरे की।
मैंने मेरे एक हाथ की बाजू को ऊपर किया और उसे कोहनी तक बाहर निकाला। मेरे हाथों के बाल एक अजीब सी हरकत करने लगे। जहां जहां बूंद गिरती, इर्द गिर्द के बाल छटपटाने लगते। बारिश से बचना चाह रहे थे या उसके साथ जाना, ये सोच ही रहा था कि मेरा फोन बज गया।
"रविश, कहां हो तुम?"
"क्यों...क्या हुआ?"
"क्या हुआ! तुम्हें बोला था ना आज मॉम डैड की एनिवर्सरी है, आज ऑफिस से जल्दी घर आजाना। अब बताओ निकले कि नहीं?"
"वो...मेरी... मेरी एक अर्जेंट मीट आ गई है। मुझे देरी हो जाएगी।"
"रविश, तुम्हें पता है ना मां कितना नाराज होगी?"
"अरे भाड़ में जाए। मेरी मीट है, मैं नहीं आ रहा।" कहकर मैंने गुस्से से फोन पटक दिया।
मेरा दिमाग खराब हो रहा था। खिड़की अब भी खुली थी पर बारिश धीमी पड़ गई थी। सामने वाली बिल्डिंग की खिड़कियों में धुंधले मगर लोग कुछ न कुछ काम में खोए हुए नजर आए।
मैंने खिड़की बंद की, लैपटॉप बैग में डाला, फोन और छाता लिया और बाहर चल दिया। ऑफिस में से गुजरते हुए, मेरे गीले हाथ से कुछ बूंदे जमीन पर गिरती रही। इसके बाद काफी देर तक मैं ना जाने किन ख्यालों में खो सा गया। कई सड़कों पर से गुजरा पर कभी सिर उठाकर ये नहीं देखा किस सड़क से गुजर रहा हूं।
जब रुका तो एक होटल के सामने था।
"वन रूम फोर नाइट प्लीज" कहकर मैंने फॉर्मेलिटीज पूरी की और कमरे की चाबी लेकर चला गया। बिस्तर पर पहले छाता, फिर बैग और फिर मैं, एक एक करके गिर गए।
थोड़ी देर बाद मेरे आंसू झड़ने लगे। वह मेरे आंखों से निकलकर कानों तक पहुंचते और फिर बिस्तर की सफेद चादर पर गिर जाते। जब यह अहसास हुआ तो मैं उठकर कांच के सामने जा खड़ा हो गया। मैं खुद को रोते हुए देखना चाहता था। मेरी आँखें छोटी और लाल हो रखी थी और उसमें से आंसू ऐसे निकल रहे थे मानों गन्ने को निचोड़ निचोड़ के उसका रस निकाला जा रहा हो। मैं रोता रहा।
कुछ देर बाद आंखे शांत हुई। धीरे धीरे मेरे होठों की किनारे ऊपर उठने लगी। पता नहीं क्यों पर मुझे खुशी थी कि मैं रोया। शायद गर्व था इस बात का।
Comments