
सच क्या है?
बचपन में जब भी मैं आलसी तौर पर पेश आता था, तो मां कहती थी "मेहनत करले थोड़ी, वरना रेड़ी चलानी पड़ेगी।"
जब बहुत छोटा था तब यह सुनकर कुछ खास बुरा नहीं लगता था। रेड़ी चलाने में गलत क्या है? थोड़ा बड़ा हुआ तो डर लगने लगा, कौन इज़्ज़त करेगा मेरी? मुझे पैसे से ज्यादा इज्जत की कीमत लगी। कई साल और बीते, और मैं इज्जत कमाने के तरीके ढूंढता रहा। एक दो मिल भी गए।
आज शायद उसी रास्ते पर हूं। पर अगर अभी खुदको कांच में देखता हूं तो अजीब लगता है। मेरा मन मुझसे ये बार बार पूछता है कि "क्या तू सच में यह काम करना चाहता है?"। सच में? ये "सच" क्या होता है? मुझे कैसे पूरी तरह पता चलेगा कि मैं यही करना चाहता हूं। मुझे तो कुछ नहीं करना! भई, अंदर से तो मैं अभी भी आलसी ही हूं ना। डर की चादर ओढ़ लेने से मेरी चमड़ी थोड़ी बदलेगी।
हम किसी भी काम को करने के लिए मोटीवेशन ढूंढने लगते है। मोटीवेशन का एक मतलब कारण है, एक उत्तेजना, एक प्रेरणा मगर मजबूरी नहीं। हमारी मजबूरी क्या है? कुछ नहीं। बिना उसके तो काम नहीं होना। तो हम झूठी मजबूरी बनाएंगे। ‘मुझे तो बचपन से यह करना था’ या ‘मैं खुद के बारे सोचता हूं तो यही काम करता हुआ दिखता हूं’। कमाल है! देखिए, अगर वाकई आप खुद को काम करता हुआ देखना पसंद करते है तो कुछ तो लोचा है आपके दिमाग में। ‘सच में’ तो काम भी वही करता है जिसकी मजबूरी सच्ची हो।
रही बात मेरी, तो नहीं। मैं खुदको किसी काम से नहीं जोड़ सका। शायद इसलिए कि मेरे घर में आम सुख सुविधा उपलब्ध रही या इसलिए कि मुझे कभी किसी ने मजबूर नहीं किया। मैं खुदको वैसे ही देखता हूं जैसा मैं हूं, एक परेशान इंसान। परेशानी इस बात से है कि हजारों सालों से रह रही इंसानियत, आज तक यह नहीं समझ पाई कि वह चाहती क्या है। परेशानी इस बात की भी है कि इस जवाब की तलाश में हमने जितने कांड कर दिए है, उनकी भरपाई कौन करेगा। परेशान होना आम है, परेशान रहना गलत। मैं रह रहा हूं। आज केवल बीस साल की उम्र में न जाने ये किस चक्रव्यूह में फंस चुका हूं। चाहे कुछ भी कर लूं, खुद को वही का वही पाता हूं। एक परेशान इंसान।
मैंने कहीं तो सुना था कि हर चीज से सवाल करो, हर बात पर सवाल करो तभी आप सच को समझ पाओगे। मैंने किया। आज भी कर रहा हूं। हर वक्त हर जगह सवालों से घिर चुका हूं। ऐसा लगता है कि मेरे मन के सारे दरवाजे खुल चुके हैं लेकिन सच कहीं भी नहीं है। बेड़ियां तोड़ते तोड़ते ये सवाल ही मेरी बेड़ियां बन चुके है। पता है इन सब बचने के लिए मैं किसका सहारा लेता हूं – झूठ का। मेरे लिए यही सच है। आज एक सवाल अपने हाथों पर कड़ियों की तरह लगाते हुए मैं आपसे पूछता हूं,
"आपका सच क्या है?"
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