
शाम
शाम का वक्त था। मैं बिस्तर पर बस लेटा था। मगर मेरे मन में कोई था। वो सीढ़ियां चढ़ रहा था। एक एक करके माले पे माला चढ़ता गया। जब बिल्डिंग के सारे माले चढ़ लिए तो उसने छत का दरवाजा खोला और चल दिया।
सूर्य भीषण रूप से जल रहा था। सूर्य के ताप से उसका बदन पिघलने लग गया। नभ में एक भी बादल नहीं था जो उसे छांव दे सके। वह चलता रहा। जब बिल्डिंग खत्म होने को थी तब वह रुका और नीचे देखने लग गया। मुझे तो नीचे सड़क ही दिखाई दी पर न जाने उसे क्या दिख रहा था। उसका बदन नीचे झुकता गया जैसे उसे कुछ खींच रहा हो। उसके सिर से पसीने की बूंदें सड़क पर गिरती रही। फिर एक पल वो वापिस सीधा खड़ा हुआ और दूसरे पल नीचे कूद गया।
शाम का वक्त था। मैं बिस्तर पर बस लेटा था। मगर मेरे मन में यह सवाल था कि किसने उसका हाथ पकड़ा? वह कौन था जिसने उसे ऊपर खींचा और कहा,
"पागल है क्या! ऐसे कोई हार मान लेता है क्या?"
वो भी चिल्ला कर बोला, "बात हार या जीत की नहीं है। मेरे पास कोई जीने का वजूद ही नहीं रहा है।"
"उनके पास तो है।"
"किनके पास?"
"तेरे मां बाप, उनके जीने का वजूद तो तू हैना। उसे क्यों मारने पर तुला है?"
शाम का वक्त था। मैं अब भी बिस्तर पर लेटा था परन्तु इस बार मेरी आंखों में आँसू थे। मुझे जिंदा महसूस हुआ।
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