
यह समझता हर कोई है
(1)
रह गई जो कसक, न होती अंजान मन से,
यादों में ठहरी रहती, कल की वफाई खुद से,
कि मैं भूल जाता हूँ हर गिला सिवाय एक इसके,
यह समझता हर कोई है, पर समझता कोई नहीं है
(2)
कहती रहती थी मेरी मां, कहती है आज भी
करता सिर्फ वही है तू, जो तू चाहता है
तुझे तेरे सिवा और कौन रास आता है
मगर अगर मैं मां, बिखर जाऊं कभी भीतर से
न जानू क्या चाहूं मैं, न कर पाऊं कुछ दिल से
कि कैसे जताऊं किसी को मेरे दुख के किस्से?
यह समझता हर कोई है पर समझता कोई नहीं है
(3)
भीग रहा हूं हर वक्त, ख्यालों के चमन में
दिख जाए एक फूल भी, रह न पाऊं अमन से
किससे बचूं? किसे बचाऊं? क्या हूं मैं?
जब मुझमें कुछ नहीं तो क्या उठे दमन से!
मुसलसल सौदों में ख्वाब बेचकर माना,
मैंने जिंदगी में एक कमाल खूब है जाना,
यह समझता हर कोई है पर समझता कोई नहीं है





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